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हमारी प्रेरणा

वीरांगना रानी झलकारी बाई

झलकारी बाई: –झाँसी की रानी का रूप धारण कर अंग्रेज़ों को चकमा देने वाली महिला
जन्म:- 25-11-1830

"झलकारी ने अपना श्रृंगार किया। बढ़िया से बढ़िया कपड़े पहने, ठीक उसी तरह जैसे लक्ष्मीबाई पहनती थीं। गले के लिए हार न था, परंतु काँच के गुरियों का कण्ठ था। उसको गले में डाल दिया।
प्रात:काल के पहले ही हाथ मुँह धोकर तैयार हो गईं


पौ फटते ही घोड़े पर बैठी और ऐठ के साथ अंग्रेज़ी छावनी की ओर चल दिया साथ में कोई हथियार न लिया। चोली में केवल एक छुरी रख ली।

थोड़ी ही दूर पर गोरों का पहरा मिला. टोकी गयी….।झलकारी ने टोकने के उत्तर में कहा, 'हम तुम्हारे जडैल के पास जाउता है.'

यदि कोई हिन्दुस्तानी इस भाषा को सुनता तो उसकी हँसी बिना आये न रहती।

एक गोरा हिन्दी के कुछ शब्द जानता था. बोला, 'कौन?

रानी - झाँसी की रानी, लक्ष्मीबाई, झलकारी ने बड़ी हेकड़ी के साथ जवाब दिया।

उन लोगों ने आपस में तुरंत सलाह की, 'जनरल रोज़ के पास अविलम्ब ले चलना चाहिए.'

उसको घेरकर गोरे अपनी छावनी की ओर बढ़े।

शहर भर के गोरों में हल्ला फैल गया कि झाँसी की रानी पकड़ ली गयी। गोरे सिपाही ख़ुशी में पागल हो गये। उनसे बढ़कर पागल झलकारी थी।

उसको विश्वास था कि मेरी जाँच - पड़ताल और हत्या में जब तक अंग्रेज़ उलझेंगे तब तक रानी को इतना समय मिल जावेगा कि काफ़ी दूर निकल जावेगी और बच जावेगी…"

झलकारी की यह दास्तान हमें मशहूर साहित्यकार वृंदावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास 'झाँसी की रानी- लक्ष्मीबाई' में मिलती है.

सवाल है, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानी में यह झलकारी कैसे और कहाँ से आयी?

1857 की क्रांति में झलकारी बाई

एक स्त्री जिसके हौसले और बहादुरी को इतिहास के दस्तावेज़ों में जगह नहीं मिली। आम लोगों ने उसे अपने दिलों में जगह दी। क़िस्से - कहानियों- उपन्यासों- कविताओं के ज़रिये पीढ़ी दर पीढ़ी ज़िंदा रखा।

सालों बाद उसकी कहानियाँ दबे- कुचले, हाशिये के समाज के लोगों की प्रेरणा बनीं। तब ही तो घोड़े पर सवार उनकी मूर्तियाँ आज कई शहरों में दिख जाती हैं।वही झलकारी बाई हैं।

1857 की पहली जंग-ए-आज़ादी का ज़िक्र आता है तो झाँसी की रानी का ज़िक्र लाज़िमी तौर पर आता है। ऐसा कहा जाता है कि रानी झाँसी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर झलकारी बाई भी अंग्रेज़ों से लड़ीं थीं।

अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास की किताबों में समाज के दबे-कुचले- वंचित समुदायों के लोग लगभग ग़ायब हैं‌ रानी लक्ष्मीबाई का नाम तो हममें से ज़्यादातर लोग छुटपन से जानते और सुनते आये हैं लेकिन झलकारी बाई का नाम इतिहास की किताबों में नहीं मिलता है.

कहानी कुछ यों है, झाँसी के पास भोजला गाँव है। उस गाँव के लोगों का कहना है कि झलकारी बाई इसी गाँव से थीं। परिवार पेशे से बुनकर था। बहुत आम और ग़रीब परिवार की थीं। ऐसे परिवारों के बच्चे-बच्चियाँ जैसे पलते हैं, झलकारी बाई का जीवन भी वैसा ही था

लेखक राजकुमार इतिहासकार बताते हैं, "ये झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के क़िले के सामने रहती थीं। भोजला उसका गाँव था और इस गाँव में पहाड़ों पर और जंगलों में लोग जा कर लकड़ियाँ इकट्ठा करते थे। क़िले के दक्षिण में उन्नाव गेट है। झलकारी बाई के घराने के लोग वहीं रहते थे। उस घराने के लोग आज भी हैं। अगर पता करेंगे तो झलकारी बाई के घराने के लोग भी ये इतिहास बताते हैं। वे कहते हैं, ये लड़ाई तो हम लोगों ने लड़ी है। हम लोगो की यहाँ पर पूरी बस्ती है हम लोगों का पूरा इतिहास है. झलकारी बाई हम लोग के समाज की थीं"

हालाँकि, उस दौर के अब तक मिले ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में झलकारी बाई का नाम नहीं आता है. मगर सवाल है कि हाशिये के लोगों को इतिहास में कब जगह मिली है? इनमें वंचित समाज भी हैं और महिलाएँ भी. झलकारी बाई दोनों का प्रतिनिधित्व करती हैं

'झलकारी बाई' के उपन्यासकार मोहनदास नैमिशराय का कहना है, 'पहली बात तो यह कि ग़ज़ट में कोई आम लोगों का नाम नहीं होता। उस समय तो झलकारी बाई आम महिला ही थीं। ख़ास तो बाद में बनीं और ग़ज़ट में नाम लिखाने के लिए बहुत सारी चीज़ें ज़रूरी होती हैं। उस समय के बहुत सारे जो ख़ास लोग होते हैं, यह उन पर निर्भर होता है।

समाजशास्त्री और दलित चेतना के उभार पर काम करने वाले बद्रीनारायण इस बात को थोड़ा और साफ़ करते हैं, 'ब्रितानी रिकॉर्ड में उन्हीं का वर्णन होता है, जो उनको महान लगते हैं।

झलकारी के पति पूरन नाम के बहादुर पहलवान थे. वे झाँसी की रानी की सेना के सैनिक थे और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ते हुए शहीद हुए. मुमकिन है, उस वक़्त के राजनीतिक और सामाजिक हालात ने झलकारी बाई जैसी एक शख़्सियत पैदा करने का काम किया। वे घुड़सवारी करती थीं. हथियार चलाना जानती थीं। निडर थीं।

इसकी समाजशास्त्रीय व्याख्या बद्री नारायण पेश करते हैं। वे कहते हैं, 'इन रानियों और राजाओं के घरों में आसपास रहने वाली सेवा कार्य से जुड़ी ख़ास जातियाँ काम करती थीं। तरह- तरह के काम करती थीं। झलकारी बाई बुनकर समुदाय से थीं. वह भी उनके घर में काम करती थीं। उनका चेहरा- मोहरा, काफी कुछ रानी लक्ष्मीबाई की ही तरह था।'बद्री नारायण का मानना है कि झलकारी का रानी से जुड़ना दो कारणों से संभव है। एक तो सेवा कार्य से जुड़ी हुई जाति से होना। दूसरा उनके पति का रानी की सेना में होना।

शायद इसीलिए वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यास में एक जगह रानी लक्ष्मीबाई कहती हैं- 'हमारे देश में नीच- ऊँच का भेद न होता तो कितना अच्छा होता…' वे अपनी ख़्वाहिश बताती हैं- 'मैं चाहती हूँ कि सब जातियों के चुने हुए लोगों को तोप बंदूक का चलाना सिखलाया जावे.'

बकौल बद्री नारायण, "जब 1857 के युद्ध में ब्रितानी सैनिकों का हमला हुआ तो उस समय उन्होंने रानी को कहा कि अपने बच्चे को लेकर तुम भाग जाओ. मैं तुम्हारी शक्ल लेकर अंग्रेज़ों को रोके रखूँगी. अंग्रेज़ सोचेंगे कि लक्ष्मीबाई से लड़ रहे हैं लेकिन तुम जा चुकी होगी. लक्ष्मीबाई बन कर वे ब्रिटिश सैनिकों को धोखा देती रहीं. बहुत वीरता से लड़ीं. कोई पहचान नहीं पाया कि लक्ष्मीबाई नहीं हैं."

कई पीढ़ियाँ गुज़री. झलकारी दस्तावेज़ों में नहीं लोगों की ज़िंदगी का हिस्सा बन गयीं. वे फ़ख़्र करने की वजह बनीं. राजनीतिक - सामाजिक चेतना आने के बाद हाशिये पर डाल दिये गये समाज के लोगों ने जंग-ए- आज़ादी में अपनी विरासत की तलाश शुरू की. उनकी दावेदारी की धमक की गूँज अब पुरज़ोर तरीक़े से सुनाई दे रही है

लिखित रूप से सबसे पहले झलकारी का ज़िक्र विष्णुराव गोडसे के संस्मरण 'माझा प्रवास' में मिलता है. फ़िर वृंदावन लाल वर्मा के उपन्यास में. इनके अलावा भवानी शंकर विशारद, माता प्रसाद, डीसी दिनकर, मोहनदास नैमिशराय की किताबें हैं. एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तक में उनकी कहानी को जगह मिली है. बद्रीनारायण बताते हैं, "झलकारी पर दलित लेखकों ने चालीस से ज़्यादा पुस्तिकाएँ लिखी हैं. इसका मतलब है लोक स्मृतियों में उनका होना है. वह हैं. और इतिहास में वह नहीं थीं, यह कहना बहुत मुश्किल है."

झलकारी बाई की प्रेरणा का उसका असर हम आज देख सकते हैं. जगह-जगह लगीं उनकी मूर्तियाँ, उनके नाम पर जारी डाक टिकट- इसके गवाह हैं. वे दलित समाज की चेतना और गर्व की प्रतीक हैं

छावनी में राव दूल्हाजू था. वह ख़बर पाकर तुरंत आड़ में आया. उसने बारीक़ी के साथ देखा.

रोज़ के पास आकर दूल्हाजू बोला,'यह रानी नहीं है जनरल साहब. झलकारी कोरिन है. रानी इस प्रकार सामने नहीं आ सकती.'

रोज़ को झलकारी की वास्तविकता समझाई गई.

झलकारी ने निर्भय होकर कहा, 'मार दै, मैं का मरबे खो डरात हो? जैसे इत्ते सिपाही मरे तैसे एक मैं सई.'"

यह बात तो हुई उनके उपन्यास की. वे उपन्यास के आख़िरी परिशष्ट में जो बात लिखते हैं, वह ऊपर की सभी की बातों का निचोड़ है

वृंदावनलाल वर्मा लिखते हैं, 'यह ऐतिहासिक सत्य है कि उन्नाव दरवाज़े पर कोरियो की तोप थी और तोपख़ाने का संचालक पूरन कोरी था. उसके पौत्र ने मुझको सारी घटनाएँ बतलायी और झलकारी के विकट और निर्भीक पराक्रम का हाल सुनाया. जनरल रोज़ ने अपनी डायरी में झलकारी की घटना का ज़िक्र नहीं किया है परंतु कोरियों में वह घटना विख़्यात है.

"चार अप्रैल 1858 की रात को रानी के निकल जाने पर, पाँच के बड़े सवेरे झलकारी घोड़े पर बैठकर रोज़ के सामने पहुँची और उससे कहा, 'रानी को कहा ढूँढते-फिरते हो? मैं हूँ रानी, पकड़ लो मुझे.' झलकारी बहुत उमर पाकर मरी।